मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद- मार्क्स ने अपने अध्ययन में इतिहास का प्रयोग एक विशिष्ट प्रकार से किया है। जिसे इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा अथवा ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है। इस सिद्धान्त में मार्क्स भौतिक शब्द का प्रयोग चेतनाहीन पदार्थ के रूप में न करके सामाजिक परिवर्तन की बात करते हैं। मार्क्स का यह मानना है कि परिवर्तन केवल आर्थिक कारणों अर्थात् उत्पादन के साधनों एवं शक्तियों में परिवर्तन के परिणाम स्वरूप ही होता है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद एक दार्शनिक विज्ञान के रूप में सामाजिक विकास के सामान्य पहलुओं, प्रवृत्तियों तथा नियमों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। यह सामाजिक जीव का सामाजिक चेतना से सम्बन्ध भी सामने रखता है तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद में प्रत्येक समस्या की व्याख्या इसी तरह सम्बन्ध के द्वारा की जाती है। इसी प्रकार ऐतिहासिक भौतिकवाद निम्न बातों से सम्बन्धित है-
- किसी भी मानवीय समाज के विकास में सम्बन्धित सामान्य वस्तुनिष्ठ नियम ।
- विश्व इतिहास तथा सामाजिक आर्थिक निर्माण की सामान्य अवस्थाएँ।
- सामाजिक जीव तथा सामाजिक चेतना से सम्बन्ध का मूल्यांकन ।
- विभिन्न सामाजिक प्रघटनाओं के अन्वेषण की अवधि ।
- ऐतिहासिक भौतिकवाद का सम्बन्ध समाजवाद तथा साम्यवाद से सम्बन्धित सभी प्रश्नों से होकर वैज्ञानिक साम्यवाद की विधि से है जिसमें आर्थिक एवं ऐतिहासिक औचित्य पर महत्ता दी जाती है जिसका उद्देश्य साम्यवाद की ओर परिवर्तन की प्रक्रिया को समझना है। ऐतिहासिक भौतिकवाद एक निरपेक्ष सिद्धान्त का दावा नहीं करता जिसकी सहायता से इतिहास की सभी समस्याओं तथा परिवर्तन को समझा जा सकता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद सामाजिक प्रघटनाओं के अन्वेषण की विधि से अधिक है क्योंकि इसका अपना एक सिद्धान्त है जिसके द्वारा सामान्य ऐतिहासिक प्रवृत्तियों की रोकथाम की जा सकती है।
- भौतिक वस्तुओं का उत्पादन तथा सन्तानोत्पत्ति ।
- उत्पादन के साधन, उत्पादन की विधियों, उत्पादन की शक्तियाँ तथा उत्पादन सम्बन्ध जो कि एक आर्थिक आधार का निर्माण करते हैं तथा यही आर्थिक आधार फिर वैचारिक अधिसंरचना का निर्माण करता है।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि मार्क्स अपने समय के प्रचलित विचारवादी भावना की आलोचना करके इतिहास की व्याख्या भौतिकवाद के आधार पर देने का प्रयास करते हैं।
- वास्तविक जीवित व्यक्ति
- व्यक्तियों की गतिविधियाँ
- इसके जीवन की भौतिक दशाएँ। जो कि पहले पायी जाती थी तथा जिन्हें वर्तमान व्यक्तियों की गतिविधियों में देखा जा सकता है। व्यक्तियों की दो प्रमुख आवश्यकताएँ हैं।
- जीवित रहने के लिए वस्तुओं का उत्पादन
- बच्चों का उत्पादन। इस प्रकार व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं के दो स्रोतों प्रकृति तथा मनुष्यों से पूरा करता है।
जब व्यक्ति की मूल आवश्यकताएँ पूरी हो जाती है तो उसकी आवश्यकताओं में और वृद्धि हो जाती है तथा वह प्रकृति से अधिक उत्पादन करता है। प्रकृति से मानव अपने लक्ष्यों की पूर्ति किस प्रकार करेगा वह उसके पास उपलब्ध उत्पादन के साधनों पर निर्भर करता है। इस प्रकार उत्पादन के साधन उत्पादन की विधियों को निर्धारित करते हैं।
कार्ल मार्क्स के अनुसार संघर्ष का सिद्धान्त।
इसके समान्तर उत्पादन की दूसरी प्रक्रिया का अर्थ व्यक्तियों से सम्बन्धित है जिसके परिणामस्वरूप जनसंख्या की वृद्धि से आवश्यकताओं में वृद्धि होती है तथा प्रकृति से अधिक उत्पादन का प्रयास किया जाता है। इस दोहरे सम्बन्ध को जो कि व्यक्ति को प्रकृति तथा अन्य सामाजिक प्राणियों से जोड़ देता है, इतिहास की भौतिकवादी धारणा कहा जा सकता है। इस प्रकार मार्क्स का अभिप्राय है-उत्पादन के साधन एवं उत्पादन की विधियों ये दोनों मिलकर उत्पादन की शक्ति का निर्माण करते हैं। उत्पादन की शक्तियाँ अनेक प्रकार की हो सकती हैं। जैसे-प्राकृतिक स्रोत, भौतिक सामग्री, विज्ञान और इंजीनियरिंग, मनुष्य के नैतिक तथा मानसिक गुण तथा श्रम- विभाजन आदि। उत्पादन की शक्तियों की विशेष दशाएँ, विशेष प्रकार के उत्पादन के सम्बन्धों को निर्धारित करती है। उत्पादन की शक्तियों और उत्पादन के सम्बन्धों को सामूहिक रूप से आर्थिक आधार अथवा प्रसंरचना कहा जा सकता है। इस आर्थिक आधार से समाज की विचारवादी अधिसंरचना निर्धारित होती है। मार्क्स का कहना है कि व्यक्ति की जागरूकता सामाजिक जीव का निर्धारण नहीं करती अपितु सामाजिक जीव चेतना निर्धारित करते हैं।
आलोचना- इन आलोचनाओं का केन्द्र बिन्दु मार्क्स द्वारा आर्थिक कारणों को महत्त्व देना है न कि उनके द्वारा उनका वर्गीकरण करना। वास्तव में आर्थिक आवश्यकता के आधार पर विभिन्न कारकों में अन्तः क्रिया उत्पन्न होते हैं। मार्क्स पर आर्थिक कारणों के निर्धारणवादी होने का आरोप लगाया जाता है परन्तु इसमें मार्क्स का कोई दोष नहीं है।