भारतीय समाज के सन्दर्भ में सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ स्पष्ट कीजिए।

सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Social Stratification) – अंग्रेजी का ‘Stratification’ शब्द भू-गर्भशास्त्र के हिन्दी शब्द के अर्थ से लिया गया है। Stratification को मूल शब्द ‘Stratum’ से लिया गया है जिसका अर्थ ‘भूमि की परतों’ से है। जिस प्रकार भूमि की विभिन्न परतों का अध्ययन भू-गर्भशास्त्र में किया जाता है, ठीक उसी प्रकार समाज की विभिन्न परतों का अध्ययन समाजशास्त्र में किया जाता है। सामाजिक स्तरीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें सामाजिक व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति, प्रतिष्ठा और शक्ति पद आदि के आधार पर उच्च एवं निम्न श्रेणियों में स्तरीकृत किया जाता है। प्रत्येक समाज अपनी जनसंख्या को आय, व्यवसाय, सम्पति, जाति, धर्म, शिक्षा, प्रजाति एवं पदों के आधार पर निम्न एवं उच्च श्रेणियों में विभाजित करता है। प्रत्येक विभाजन एक परत के समान है और ये सभी परतें जब उच्चता एवं निम्नता के क्रम में रखी जाती हैं तो सामाजिक स्तरीकरण के नाम से जाना जाता है। टालकट पारसन्स ने कहा है कि स्तरीकरण व्यवस्था सामान्य मूल्यों से व्युत्पन्न होती है तथा सामाजिक व्यवस्था के क्रम-विन्यास के प्रमुख आधारों को पारसन्स ने सामाजिक स्तरीकरण की विवेचना में महत्वपूर्ण योगदान दिया तथा विभिन्न सामाजिक आधारों पर इसको विभाजित किया है। अतः सामाजिक स्तरीकरण समाज को उच्च एवं निम्न वर्गों में विभाजित करने और स्तर निर्माण करने की एक व्यवस्था है।

, “स्तरीकरण उच्चतर एवं निम्नतर सामाजिक इकाइयों में समाज का क्षैतिज विभाजन है।”

रेमण्ड

“किसी सामाजिक व्यवस्था के लोगों का विभेदक और एक-दूसरे की तुलना में श्रेष्ठता एवं निम्न विचार सामाजिक स्तरीकरण है।”

पारसन्स एवं जॉनसन

“किसी समाज व्यवस्था में व्यक्तियों का ऊँचे और नीचे क्रम- विभाजन ही स्तरीकरण है।”

हॉलकॉट

पी. जिसबर्ट के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण समाज का उन स्थायी समूहों अथवा श्रेणियों में विभाजन है जो कि आपस में श्रेष्ठता एवं अधीनता के सम्बन्धों द्वारा सम्बद्ध होते हैं।”

पी. जिसबर्ट

के. वी. मेयर ने स्तरीकरण को विभेदीकरण का परिणाम माना है।

के. वी. मेयर

ट्यूमिन के अनुसार, “किसी सामाजिक व्यवस्था में उच्च और निम्न रूप से श्रेणीबद्ध होना ही सामाजिक स्तरीकरण है।”

ट्यूमिन

प्रख्यात समाजशास्त्री पी. ए. सोरोकिन ने सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा में निम्न- लिखित बिन्दुओं को स्पष्ट किया है-

  1. सामाजिक स्तरीकरण जनसमूहों से सम्बन्धित है अर्थात् यह जनसमूहों के बीच में होता है।
  2. वर्गों में विभेदोकरण के आधार पर एक आकार बनता है। यह आकार श्रेणीक्रम से बना होता है अतः यह एक सोपान की तरह दिखाई पड़ता है।
  3. सामाजिक स्तरीकरण का आधार समाज के सदस्यों में अधिकारों और सुविधाओं, कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों, सामाजिक मूल्यों और अभावों, सामाजिक शक्ति और प्रभावों के असमान वितरण में पाया जाता है।
  4. सामाजिक स्तरीकरण उच्च एवं निम्न सामाजिक स्तर के अस्तित्व में अभिव्यक्त होता है।

उपर्युक्त विवरण एवं विश्लेषण के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि जब समूहों में असमानताओं के कुछ विशेष प्रकारों का केन्द्रीयकरण हो जाता है तो समूह की एक विशिष्ट पहचान बन जाती है तथा दूसरे समूहों से अलग होकर उनका विखण्डन हो जाता है। फलतः असमानताओं के स्तरों में वितरण को सामाजिक स्तरीकरण का विभाजन कहा जाता है। अतः स्पष्ट है कि असमानता सामाजिक व्यवस्था को विभिन्न स्तरों में विभाजित करती है। समाज. के इसी विभाजन को सामाजिक स्तरीकरण के रूप में परिभाषित किया जाता है।

सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएँ (Characteristics of Social Stratification)

सामाजिक स्तरीकरण शक्ति संरचना, सत्ता, प्रतिष्ठा निर्णय की प्रक्रिया एवं सामाजिक असमानता के जटिल तत्वों के विश्लेषण के बिना सम्भव नहीं है। डेविस तथा मूरे ने प्रकार्यवादी विचारधारा आधार पर, कार्ल मार्क्स ने संघर्ष पर आधारित विचारधारा के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण का तीन व्यवस्था का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। मैक्स वेबर ने संकलनवादी/समाकलनवादी विचारधारा के आधार पर तथा पैरेटो ने अभिजनों के चक्रवर्तन के सिद्धान्त के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण को विशेषताओं, आधारों तथा अन्य पक्षों का विश्लेषण किया है। पारसन्स एवं मूरे सामाजिक स्तरीकरण को प्रकार्यात्मक आवश्यकता मानते हैं। ओल्सन के अनुसार स्तरीकरण मानव की मनोवृत्तियों को भी तय करती है। निम्न- लिखित बिन्दुओं के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है-

(1) सार्वभौमिकता (Universality )

सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप सार्वभौमिक होता है। सार्वभौमिकता से अभिप्राय सामाजिक स्तरीकरण आदिम जनजातियों, ग्रामीण परिवेश तथा समाज, समूह आदि को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह दुनिया के कोने-कोने में सामाजिक स्तीकरण विभिन्न रूपों में मौजूद है। के. डेविस ने स्तरीकरण के व्यावहारिक विश्लेषण का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। किंग्सले डेविस तथा डब्ल्यू.ई. मूरे ने अपनी क्रियावादी विचारधारा के सम्बन्ध में स्पष्ट किया है कि दुनिया में ऐसा समाज नहीं है जहाँ स्तरीकरण नहीं है।

(2) सामाजिक दूरी (Social Distance)

सामाजिक स्तरीकरण तथा सामाजिक दूरी एक-दूसरे से अन्तर्सम्बन्धित अवधारणाएँ हैं। सामाजिक स्तरीकरण के कारण ही सामाजिक दूरी की स्थिति उत्पन्न होती है। प्रो. आन्द्रे बेतेई ने जाति, वर्ग तथा शक्ति संरचना के अपने अध्ययन में स्पष्ट किया कि खान-पान, वैवाहिक सम्बन्ध तथा निवास स्थल के आधार पर भारतीय ग्रामीण परिवेश में जाति व्यवस्था के कारण सामाजिक असमानता एवं दूरी की स्थिति उत्पन्न होती है।

(3) विभिन्न स्तरों में विभाजन (Division at Various Steps )

सामाजिक स्तरीकरण विभिन्न स्तरों पर विभाजन के स्वरूपों को स्पष्ट करता है। उदाहरण के लिए- एक उद्योग में मुख्य कार्याधिकारी, प्रबन्धक, कर्मचारी, सहायक इत्यादि स्तरों का विभाजन होता है। बाजार में उद्योगपति, थोक व्यापारी, खुदरा व्यापारी आदि के रूप में स्तरों का विभाजन होता है।

(4) सामाजिक प्रतिष्ठा (Social Prestige )

सामाजिक स्तरीकरण का सम्बन्ध सामाजिक प्रतिष्ठा से विशेष रूप से जुड़ा है। परिस्थिति, पारिश्रमिक, पारितोषिक, सत्ता तथा कार्य-संस्कृति के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा का निर्माण होता है।

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(5) गतिशीलता (Mobility)

वर्ग संरचना के अन्तर्गत व्यक्ति अथवा समूह अपनी क्षमता और परिश्रम के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण की गतिशीलता प्राप्त करने का प्रयास करता है। गतिशीलता के लिए मुक्त सामाजिक स्तरीकरण का होना आवश्यक है क्योंकि बन्द सामाजिक स्तरीकरण में गतिशीलता सम्भव नहीं है।

(6) परस्पर सम्बद्धता (Mutually Connected)

सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न स्तरों में परस्पर क्रमबद्धता की अनुभूति होती है। सामाजिक स्तर, पहचान, पृष्ठभूमि तथा सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर अलग-अलग होने के बाद भी विभिन्न समूहों में परस्पर सम्बद्धता होती है। उदाहरण के लिए—उद्योग में विभिन्न कर्मचारियों का स्तर अलग-अलग होने के बाद भी उनमें परस्पर सम्बन्ध होता है।

(7) वैयक्तिक प्रक्रिया (Individual Process)

सामाजिक स्तरीकरण की प्रकृति के विषय में ओल्सन द्वारा वर्णित है कि इसकी प्रक्रिया की प्रकृति वैयक्तिक होती है।

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