बाल अपराध की परिभाषा (Meaning of Juvenile Delingency)- बाल अपराध का ही एक पक्ष है जिस पर आधुनिक युग के विशेषज्ञों ने विभिन्न दृष्टिकोण से विचार किया है।
संयुक्त राज्य अमेरिका की लोकसभा अर्थात् कांग्रेस के 75वें अधिवेशन के दूसरे की बैठक में राज्य के सरकारी व्यय से सम्बन्धित की एक उपसमिति ने बाल अपराध की समस्या पर एक बड़ी महत्तवपूर्ण रिपोर्ट पेश की थी। उसमें कहा गया था कि “बाल अपराध बालक तथा बालिकाओं द्वारा किया गया वह आचरण है जिसे समाज स्वीकार नहीं करता तथा जिस आचरण के लिए वह ताड़ना देना देना या सुधारात्मक कार्य करना, सार्वजनिक में आवश्यक समझता है।”
प्रसिद्ध सामाजिक विचारक डॉ. सेवना (M.J, Sethina) महोदय ने बाल अपराध की परिभाषा करते हुए लिखा है कि बाल अपराध में एक स्थान विशेष में उस समय लागू कानून द्वारा निर्धारित एक निश्चित आयु के बालक अथवा युवा व्यक्ति द्वारा किये गये अनुचित कार्य शामिल हैं।” इस प्रकार बाल अपराधी की आयु भित्र-भित्र देशों के कानूनों में भिन्न-भिन्न मानी गयी है। प्रत्येक राज्य देश अपराधियों की न्यूनतम और अधिकतम आयु निश्चित करता है। भारतीय विधान की धारा 83 के अनुसार 7 वर्ष से अधिक और 12 वर्ष से कम आयु वाले अच्छे-बुरे का मान रखने वाले नासमझ बालकों को अपराधी नहीं माना जा सकता। बाल अधिनियमों (Children Acts) में बाल अपराधी की अधिकतम आयु 16 वर्ष मानी गयी है। 1957 ई. के रिफार्मेटरी स्कूल अधिनियम (Reformatory School Act, 1957)) के अनुसार बाल अपराधियों की अधिकतम आयु 15 वर्ष निश्चित की गयी है। सामान्य रूप से बाल अपराधी की अधिकतम आयु 17 वर्ष मानी जाती है, अतः 17 वर्ष की आयु से कम अपराधियों को बाल अपराधी कहा जाता है।
न्यूमेयर (Neumeyer, M.AL.) के शब्दों में, “एक बाल अपराधी निर्धारित आयु से कम आयु वाला वह व्यक्ति है जो समाज-विरोधी कार्य करने का दोषी है और जिसका दुराचरण कानून। का उल्लंघन है।”
बाल अपराध के कारण (Causes of Juvenile Delinquency)
बाल अपराध के प्रमुख कारण निम्नलिखित है-
(1) पारिवारिक कारण (Family Causes)
परिवार बालक के शिक्षण-प्रशिक्षण की प्रथम संस्था है। परिवार के ऊपर ही बालक के बिगड़ने और बनने का प्रश्न निर्भर रहता है।
परिवार चाहे तो बालक के पथप्रष्ट कर दे और चाहे तो उसे स्वस्थ नागरिक बना दें। परिवार से बालक को न केवल जैविक बल्कि सांस्कृतिक गुण भी उत्तराधिकार में मिलते हैं। सभी समाज वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि बालक में सामाजिकता के गुण का विकास सर्वप्रथम परिवार में होता है। परिवार का सांवेगिक वातावरण भौतिक पक्ष की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। बालक के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक है कि हम उसमें सुरक्षा की भावनायें पैदा करें। माता-पिता की स्नेहमयी छत्रछाया में बालक ऐसा अनुभव करे कि उसके माता-पिता उससे वस्तुतः स्नेह करते हैं।
(2) शारीरिक एवं जैविकीय कारण (Physicological And Biological Causes)
मस्तिष्क में चोट या रोग, स्नायुमण्डल या स्वचालित नाही व्यवस्था में विकार, शारीरिक रोग या शरीर के किसी अंग में विकार, ये सब चीजें बालकों को अपराध करने में बहुत सहायक होती है कारण, इनसे उनमें हीनता, असुरक्षा, चिन्ता प्रन्थियों और विध्वंसकारी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं जिनसे बच्चों में समाज-विरोधी तोड़-फोड़ और विनाशकारी प्रवृत्तियाँ बढ़ती है और जब इन प्रवृतियों की अभिव्यक्ति घर के बाहर होती है तब वह समाज विमुख कहा जाने लगता है।
(3) सामाजिक कारण (Social Causes)
इसमें सन्देह नहीं कि व्यापक सामाजिक और राजनीतिक वातावरण अपना अच्छा या बुरा प्रभाव व्यापक रूप से छोटों और बड़ों पर, शिक्षितों और अशिक्षितों पर ग्रामवासियों और नगरवासियों पर डालता है। कोई भी समाज, समुदाय या समूह किसी भी काल या देश में क्यों न हो, उसकी कोई न कोई नैतिकता होती है। जिससे वह गठित और संचालित होता है और इसके अभाव में वह विघटित और कार्य-भ्रष्ट होता. है। सामाजिक वातावरण किसी बालक को अपराधी बना सकता है।
(4) मनोवैज्ञानिक कारण (Psychological Causes)
शारीरिक तथा पारिवारिक अथवा पर्यावरण सम्बन्धी कारणों के अतिरिक्त कुछ अन्य कारण हैं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बाल अपराध से सम्बन्धित है। उपर्युक्त विश्लेषण से ज्ञात होता है कि शारीरिक कारणों में स्नायुमण्डल सम्बन्धी रोग तथा शरीर की विकलांगता आदि आते हैं और पारिवारिक कारण में परिवार, पड़ोस और स्कूल के प्रभाव आदि का हम अध्ययन करते हैं। लेकिन इन सबके विपरीत, मनोवैज्ञानिक कारणों में मानसिक योग्यता के निम्न स्तर का होना, व्यक्तित्व का दोषपूर्ण ढंग से विकास, मानसिक रोग तथा सांवेगिक असन्तुलन आदि का समावेश होता है। आज मनोवैज्ञानिक लोग यह स्वीकार करने लगे हैं कि उद्दण्ड या अपराधी मनोवृत्ति वाले बच्चे ‘मानसिक भूख से पीड़ित’ हैं, उनका विकास रुक गया है और वे मानव विकास के सीधे मार्ग से विचलित हो गये हैं। हीली तथा ब्रोनर (Healy & Brionner) कहते हैं कि “बालक मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाने के कारण ही अपराध के स्रोत में बहता है।” केन्टोर (Cantor) लिखते हैं कि “अधिकतर मामलों में बाल अपराध एक व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं का उत्तर है।”
(5) व्यक्तित्व सम्बन्धी कारण
इसके अन्तर्गत हम चारित्रिक विशेषताओं और मौन सम्बन्धी आदतों का अध्ययन करेंगे। चारित्रिक ह्रास बाल अपराध का मुख्य कारण है। बालक निरुद्देश्य जीवन व्यतीत करते हैं। उनका न तो समुचित मार्ग-दर्शन ही होता है और न उन पर किसी प्रकार का नैतिक प्रतिबन्ध ही होता है। गन्दी बस्तियों की सफाई, पारिवारिक आय में वृद्धि व्यावहारिक समस्याओं के समाधान के लिए मनोवैज्ञानिक और बाल-निर्देशन क्लीनिकों की स्थापना तथा सुधारात्मक संस्थाओं की स्थापना सेवाल अपराध की समस्या में कोई विशेष कमी नजर नहीं आती। इनका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि इन सेवाओं की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस औद्योगिक और धन-केन्द्रित अर्थव्यवस्था में मानव केवल शरीर नहीं है, उसके मन और आत्मा भी है। इसलिए उपर्युक्त भौतिक सुख-सुविधाओं के साथ-साथ उसे आध्यात्मिक पोषण और सांवेगिक सन्तुष्टि की भी आवश्यकता है। इस ओर ध्यान न देने का ही परिणाम है कि हमारे समाज में बाल अपराध वृद्धि पर है।
(6) सांस्कृतिक कारण (Cultural Causes)
बालकों को अपराध प्रवृत्ति के विकृति की ओर ले जाने में पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति एवं मूल्यों का भी योग है। हमारे देश में आज पाश्चात्य सभ्यता, वेश-भूषा और खान-पान की तेजी से नकल हो रही है। विदेशों से लौटे भारतीय भारत में आकर भी पाश्चात्य सभ्यता को नहीं छोड़ते रहन-सहन, वेश-भूषा और अन्य वार्तो का प्रभाव दूसरे नवयुवकों पर भी पड़ता है। युवक और युवतियाँ उनसे प्रभावित होकर तेजी से उनकी नकल करते है। इससे पश्चिमी देशों के अश्लील और अशिए फैशन तीव्रता से फैलने हैं जो कि हमारी सभ्यता और संस्कृति के सर्वदा विपरीत है।
(7) आर्थिक कारण (Economic Causes)
जोन्स (Jones) ने कहा है, “व्यक्ति जो कुछ कह सकता है बस यही कि आर्थिक स्तर जितना निम्न होगा, बाल अपराध का प्रतिशत उतना ही ऊंचा होगा।” आर्थिक कारण परोक्ष रूप में अर्थाभाव अथवा अर्थाधिक्य के द्वारा ऐसा पर्यावरण प्रस्तुत करता है जिससे यह सम्भावना हो जाती है कि बालक समाज तथा राज्य की मान्य रूढ़ियों को भंग करने की ओर अग्रसर होगा। आर्थिक कारणों में निर्धनता, बेकारी, व्यावसायिक चक्र आदि प्रमुख हैं। निर्धनता अपराध के पालन की भूमि है। अभावग्रस्त तथा भूख से पीड़ित मनुष्य के अन्दर नैतिकता-अनैतिकता, कर्म-कुकर्म आदि के बारे में सोचने- समझने की शक्ति नहीं रहती। उसे तो भूख से छुटकारा पाने का साधन चाहिए और यदि वह साधन उसे नहीं मिलता तो वह जघन्य से जघन्य कार्य करने पर उतारू हो सकता है। भारत में तो निर्धनता अभिशापतुल्य है। इससे बालक में ईर्ष्या, निराशा, अभावग्रस्तता, घृणा, शारीरिक रोग एवं दुर्बलता उत्पन्न होती है, लेकिन कुछ विद्वान् निर्धनता को अपराध का प्रमुख कारण नहीं मानते।
इस तरह हम देखते हैं कि आज हमारी स्वस्थ संस्कृति के स्थान पर एक दूषित उप- संस्कृतिक का उदय हो रहा है। इसका दर्शन हमें घर से लेकर बाहर तक होता है। हमारे अधिनियम, मनो-सामाजिक उपचारात्मक प्रणालियाँ इस उप-संस्कृति की चुनौती का मुकाबला नहीं कर सकती। अतः सभी विचारकों से अपेक्षित है कि वे इस उच्छृंखल उप-संस्कृति का वैज्ञानिक अध्ययन करें ताकि इससे उत्पन्न चुनौतियों का प्रभावूपर्ण ढंग से सामना किया जा सके
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