भारत में समाजशास्त्र के उदय पर चर्चा कीजिए।

भारत में समाजशास्त्र के उदय – समाजशास्य मूलरूप से सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक ढांचे का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। अतः इस रूप में इसका इतिहास अधिक पुराना नहीं हैं लेकिन मूल रूप से यह हजारों वर्ष पुराना है।

पश्चिमी समाजों में समाजशास्त्र

1. समाजशास्त्र के विकास की प्रथम अवस्था

समाजशास्त्र के क्रमबद्ध अध्ययन में प्रथम स्थान यूनानी विचारकों का है जिन्होंने आज से काफी वर्ष पहले सामाजिक सम्बन्धों का सूक्ष्म अध्ययन किया है। प्लेटो ने अपनी पुस्तक “रिपब्लिक” में अरस्तू ने “पॉलिटिक्स” में अनेक सामाजिक घटनाओं, प्रथाओं, स्त्रियों की स्थिति, पारिवारिक सम्बन्धों तथा सामाजिक संहिताओं का वर्णन किया था। इन विद्वानों के विचारों में स्पष्टता का अभाव था। ये एक ओर समाज, समुदाय तथा राज्य में दूसरी ओर दर्शन एवं विज्ञान में भेद नहीं कर पाये। उस समय समाज में धर्म और जादू टोने का प्रभाव था। अतः सामाजिक घटनाओं का अध्ययन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नहीं किया जा सका।

2. समाजशास्त्र के विकास की द्वितीय अवस्था

छठी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक का काल समाजशास्त्र के विकास की द्वितीय अवस्था मानी जाती है। काफी समय तक सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए धर्म और दर्शन का सहारा लिया जाता रहा है। लेकिन तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए तर्क को भी स्थान दिया जाने लगा। इसी काल में समाज को परिवर्तनशील माना गया और साथ ही परिवर्तन के पीछे कुछ निश्चित नियम, सामाजिक क्रियायें एवं शक्तियाँ कार्य करती हैं। इस समय सामाजिक घटनाओं तथा तथ्यों को समझने के लिए उस विधि के प्रयोग पर जोर दिया गया जिसका प्रयोग प्राकृतिक घटनाओं एवं तथ्यों को समझने हेतु किया जाता था। अब समाज के अध्ययनों में कार्यकारण सम्बन्धों पर जोर दिया जाने लगा।

3. समाजशास्त्र के विकास की तृतीय अवस्था

इस अवस्था का प्रारम्भ पन्द्रहवीं शताब्दी से माना जाता है। इसी समय हाब्स, लॉक, रूसो के द्वारा प्रतिपादित “सामाजिक समझौते का सिद्धान्त” आया। 17वीं शताब्दी में जेम्स हेरिटन ने इतिहास की आर्थिक व्याख्या से सम्बन्धित एक व्यस्थिति सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

सत्रहवीं और अठारवीं सदी में समाजशास्त्र को जन्म देने वाली परिस्थितियों में यूरोपीय विश्व की गतिविधियों तक आते-आते विचार दर्शन में काफी बदलाव आया। सत्रहवीं सदी में यूरोप में चर्च और राज्य का क्षेत्र भित्र-भित्र हो गया इस घटना ने समाज को धर्म निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन करने को प्रेरित किया। अठारहवीं सदी आर्थिक क्रान्ति की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस युग में यह मांग की जाने लगी कि आर्थिक क्षेत्र में राज्य किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न करें। महान् अर्थशास्त्री स्मिथ ने अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र को एक-दूसरे से पृथक् कर दिया। अब इन दोनों विषयों पर अलग-अलग तरीके से विचार किया जाने लगा। इस प्रकार यूरोप की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिस्थितियों ने एक ऐसा वातावरण बनाया जिससे व्यक्ति को समाज की विभिन्न समस्याओं पर विचार करने के लिए विवश कर दिया। इन सामाजिक समस्याओं ने समाजशास्त्र के विकास में अहम भूमिका निभायी।

4. समाजशास्त्र के विकास की चतुर्थ अवस्था

19वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में इतिहासखाओं, अर्थशास्त्रियों एवं दार्शनिकों ने सामाजिक समस्याओं का अध्ययन आर्थिक परिस्थितियों पर ध्यान केन्द्रित करके किया इसी समय जे० एस० मिल ने ऐसे समय की कल्पना की जो सम्पूर्ण समाज का दर्पण हो। उनके इस इच्छा की पूर्ति अगस्त कॉम्ट ने 1838 में “समाजशास्त्र” शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग करके की। समाजशास्त्र जैसे विशाल विषय का आधार अगस्त कॉम्ट का चिन्तन ही है। आपने पहले सामाजिक दर्शन और समाजशास्त्र में अन्तर स्पष्ट किया, तथा समाजशास्त्रिय प्रणाली का विकास किया। अगस्त कॉम्ट ने बताया कि प्राकृतिक घटनाओं के समाज सामाजिक घटनाओं का वैषयिक तरीके से प्रत्यक्ष विधि द्वारा अध्ययन किया जा सकता है। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्पेन्सर ने समाजशास्त्र पर अपनी रचना “Synthethic Philosophy” के एक भाग Principals of Socialogy में कॉम्टे को रूप देने का प्रयत्न किया। सबसे पहले येल विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के अध्ययन अध्यापन का कार्य प्रारम्भ हुआ।

समाजशास्त्र को सामाजिक विज्ञानों से पृथक् स्वतन्त्र वैषयिक विज्ञान बनाने का श्रेय फ्रांस के विद्वान दुख को है इसके अतिरिक्त जम के मैक्सवर इटली के को ज है। अमेरिका में तो समाजशास्त्र इतना लोकप्रिय हो गया कि वहाँ सभी महत्त्वपूर्ण विचारक समाजशास्त्रीय ही हैं।

भारत में समाजशास्त्र का विकास

भारत में समाजशास्त्र का नाम नया है, किन्तु इसकी नीव अति प्राचीन है। भारत के प्राचीन समाजशास्त्री है-मनु यागवल्क्य, भृगु, चाणक्य आदि। इन्होंने समाज के विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में न केवल अपने विचार दिए बल्कि उन्हें एक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया है। प्राचीन ग्रन्थों से पता चलता है कि उस समय की वर्णाश्रम व्यवस्था व्यक्ति और समाज के बीच सुन्दर समन्वय का एक उत्तम उदाहरण है। उस समय के चिन्तक इस बात से परिचित थे कि केवल भौतिकता एवं व्यक्तिवादिता के आधार पर व्यक्ति के जीवन को पूर्णता प्रदान नहीं की जा सकती। अतः उन्होंने आध्यात्मवदा का सहारा लिया, धर्म के आधार पर व्यक्ति के आचरण को निश्चित करने का प्रयत्न किया।

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पश्चिमी देशों में समाजशास्त्र का विकास तीव्र गति से हो रहा था ऐसे में भारतीय विद्वानों का ध्यान भी भारत में समाजशास्त्र को एक विषय के रूप में विकसित करने की ओर गया। परिणामस्वरूप यहाँ सर्वप्रथम 1914 में अंग्रेज विद्वान् प्रो० पैट्रिक गेड्सि की देख-रेख व निर्देशन में समाजशास्त्र की एम० ए० की कक्षाए आरम्भ हुयी। 1917 में प्रो० वृजेन्द्रनाथ शील की प्रेरणा से कलकत्ता विश्व विद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के साथ समाजशास्त्र विषय की स्थापना हुयी। प्रो० शील ने समाजशास्त्रीय अध्ययन क्षेत्र में अत्यधिक रुचि दिखायी और इस विषय पर विशद् व्याख्यान दिए तथा पुस्तक की रचना किया। उससे समाजशास्त्रिय अध्ययन को लोकप्रियता मिली। 1921 में लखनऊ विश्वविद्यालय में डॉ० राधा कमल मुखर्जी के नेतृत्त्व में अर्थशास्त्र विभाग के अन्तर्गत समाजशास्त्र को मान्यता मिली। 1924 में प्रो० जी० एस० धुरिये ने बम्बई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के अध्यक्ष के पद को संभाला और लगभग 40 समाजशास्त्रीय पुस्तकों की रचना की और समाजशास्त्र को भौतिक भारतीय स्वरूप प्रदान करने में सफल रहे। मैसूर विश्वविद्यालय में 1923 में तथा 1930 में पूना विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग प्रारम्भ हुआ। यहां श्रीमती इरावती कर्वे ने विभागध्यक्ष का पद संभाला।

भारत में व्यापक प्रसार का युग स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अर्थात् 1947 के बाद प्रारम्भ होता। जब एक स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र का अध्ययन एक के बाद दूसरे विश्वविद्यालयों में फैलता चला गया। वर्तमान में देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना हो चुकी है। इसके अतिरिक्त अनेक शासकीय एवं अशासकीय महाविद्यालयों में स्नातक एवं स्नात्तकोतर स्तर पर समाजशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है। आज अनेक विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में शोध कार्य हो रहा है। साथ ही समाजशास्त्र के विकास की दृष्टि से देश के अनेक तकनीकी एवं चिकित्सा संस्थानों तथा सामाजिक शोध संस्थानों में भी समाजशास्त्र सम्बन्धित कार्य हो रहे हैं।

जिन भारतीय समाजशास्त्रियों ने भारत में समाजशास्त्र के सम्बर्द्धन विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया है उनमें प्रो० एम० एन० श्री निवास, प्रो० बाई वी० दामले, प्रो० विक्टर डिसुजा, डॉ० श्यामाचरण दूबे, एम० एस० गोरे, टी० एन० मदान, डॉ० आर० के मुखर्जी, प्रो० पी० एन० मुखर्जी, प्रो० टी० के० ओमन, प्रो० सच्चिदानन्द, प्रो० योगेन्द्र सिंह, प्रो० वी० के० आर० वी० राव, प्रो० एस० पी० नागेन्द्र, प्रो० सत्येन्द्र त्रिपाठी, प्रो० हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव, प्रो० के० एन० शर्मा, प्रमिला कपूर, रतना सायडू, श्रीमती सी० पार्वधम्मा आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

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