दलित आन्दोलन – जनजातियों को सबसे निचली हैसियत हासिल थी। वे समाज का सबसे निचलों वर्ग समझे जाते थे। वे खेतों में मजदूरी करते थे या सामान होते थे, या कल-कारखानों में कुलियों और मालियों का काम करते थे। उपनिवेशवादी राज से जनजातीय क्षेत्र में बड़े पैमाने पर प्रभावित हुए। जनजातियों के क्षेत्र में बाहरी लोगों का दखल शुरू हो गया। वे या तो महाजन थे, या व्यापारी थे, या जमीनों और जंगलों के ठेकेदार थे।
ब्रिटिश राज में पूरी निजी सम्पत्ति का चलन आम हुआ जिसने संयुक्त रूप से मालिकाना अधिकार की परंपरा का बहुत नुकसान पहुंचाया, जैसे “खूंट कट्टी” का रिवाज छोटा नागपुर में था। ब्रिटिश राज में जंगली क्षेत्रों पर भी अपना वर्चस्व कायम किया और उससे आर्थिक लाभ हासिल करने की कोशिश की 1867 तक जंगलों के सिलसिले में बहुत से कानून बन चुके थे जो जनजातियों के लिए रुकावट बन रहे थे। इन सभी परिवर्तनों से जनजातीय क्षेत्रों में तनाव उत्पन्न हो गया।
जनजातियों की प्रतिक्रिया आम तौर पर हिंसक ही रही। वास्तव में जनजातियों में अक्सर विद्रोह के स्वर गूंजे और बगावत ने अक्सर हिंसक रूप भी ले लिया। कुछ जगहों पर उनका यह आंदोलन सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर सुधार की वजह भी बना। उन्हें ऐसा विश्वास था कि उनके नेताओं के चमत्कार से जनजातियों का सुनहरा युग दोबारा वापस आ जायेगा। मिसाल के तौर पर नैकदा की जंगी जनजातियों ने गुजरात में 1868 में पुलिस स्टेशन पर इस उद्देश्य से हमला किया कि धर्मराज दोबारा स्थापित किया जा सके। उसी तरह 1882 में कच्छा नागा को ऐसा विश्वास था कि उनके नेता शंभूदान के हाथ से कुछ ऐसा चमत्कार होगा कि बंदूक की गोलियां उनके शरीर का कुछ भी न बिगाड़ पायेंगी। लेकिन जनजातियों के जिस विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार और “दीकू” दोनों को समन रूप से प्रभावित किया, वह संचाल विद्रोह (1855- 57) और मुंडा विद्रोह (1899-1900) चा
संथाल विद्रोह
संथाली वीरभूम बंकारा, सिंहभूम, हजारी बाग, भागलपुर तथा मुंगोर के इलाके के गरीब जनजाती थी। इस इलाके में भी जमींदारों एवं महाजनों का अत्याचार जारी था। महाजन 50 प्रतिशत से 500 प्रतिशित तक सूद वसूलते थे। जमींदारों के बिचौलियों का अत्याचार भी बढ़ता जा रहा था। ये उनसे बलपूर्वक बेगार लेते थे और रेलवे पटरियों के पास उनकी महिलाओं का यौन शोषण (Sexual Exploitation) किया करते थे।
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जब आंदोलन की शुरूआत हुई तो वह मुख्य रूप से महाजनों और व्यापारियों के खिलाफ थी। 30 जून, 1885 को 10 हजार संथाली दो और कान्हू के नेतृत्व में भागीदारी में इकट्टे हुए और यह घोषणा की गयी कि संचाल शोषण करने वालों को इस इलाके से मार भगायेंगे। उन्हें विश्वास था कि ईश्वरीय आदेश पर ही वे इस तरह इकट्ठे हुए हैं और ईश्वर उन विद्रोहियों की हर तरह से मदद करेगा। उन्होंने इस संघर्ष को ईश्वर और शैतान के बीच संघर्ष की सजा दी। इसी अच्छाई की बुराई के विरुद्ध युद्ध कहा गया। जब आंदोलन एक बार शुरू हो गया तो उन्होंने पुलिस गोरे बागान मालिकों, रेलवे इंजीनियरों और सरकारी अधिकारियों सभी पर हमले शुरू कर दिये। इस तरह यह विद्रोह पूरी तरह ब्रिटिश राज के विरुद्ध हो गया।
मुंडा विद्रोह
छोटानागपुर के पठारी क्षेत्रों में रहने वाले मुंडा जनजातियों के साथ भी कुछ इसी तरह के समस्याएं थी। ईसाई मिशनरियों के प्रभाव ने समस्या को और भी उलझा कर रख दिया था।
बिरसा मुंडा, जिसने खुद भी मिशनरी स्कूल से शिक्षा प्राप्त की थी, ने 1898-1899 के बीच रातों में अनेक जन सभाओं का आयोजन किया। उन सभाओं में उसने यूरोपीय गोरों, जागीरदारों, राजाओं, डाकियों और ईसाईयों की हत्या के लिए लोगों को उकसाया। उसने लोगों को बताया कि दुश्मनों के बंदूकों की गोलियां तुम तक आते-आते पानी बन जायेंगी। मुंडा जनजातियों के मुंह पर यह गीत हर समय गूजता रहा था।
“करोगे बाबा करोगे, साहेब करोगे, करोगे, रारी करोगे करोगे।” यानी, “ओ बाबा, यूरोपीय साहेबों को मार डालो। सभी दूसरों को मार डालो, मार डालो, मार डालो।”
दिसंबर 1899 में बिरसा मुंडा के अनुयायियों ने राँधी और सिंहभूम में चर्चा में आग लगाने की कोशिश थी। पुलिस टुकड़ियों पर भी हमले किये गये। अंततः विद्रोहियों को पराजित कर दिया गया और बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में हो बिरसा मुंडा की मृत्यु हो गयी। कहते हैं कि उसे हैजा हो गया था। बाद में, 1980 ई. में जब छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम पारित हुआ और खूंर कट्टी अधिकार को मान्यता दे दी गयी ओर बेगारी प्रथा को समाप्त कर दिया गया तो इस अंदोलन ने फिर जोर पकड़ा।
निष्कर्ष
- 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष के बाद किसानों ने अपने संघर्ष को जारी रखा लेकिन अब उनका लक्ष्य सीमित हो गया। अब वह अंग्रेजों के विरुद्ध नहीं रहा।
- किसानों के अधिकांश विद्रोह क्षेत्रीय स्वाभाव के थे। उनमें आपसी समन्वय की कमी थी। एक बार जब उद्देश्य हासिल हो जाता, विद्रोह भी समाप्त हो जाता। इस कारण वे ब्रिटिश साम्राज्य के लिए कभी खतरा नहीं बन सके।
- बग़ावत तेजी से फैलती और आमतौर पर असहनीय अत्याचार एवं शोषण के विरुद्ध फैलाती ये किसान इस लिए डिड़क उठते क्योंकि उनके अस्तित्व को ही खतरा महसूस होने लगता।
- किसानों ने वास्तविक कारणों के लिए संघर्ष कियां उन्हें अपनी शक्ति और सीमाओं का ज्ञान था। इसलिए वे जमीन के मालिकाना अधिकारों के लिए कभी नहीं लड़े। इस मामले में उनका जेहन बिल्कुल साफ था कि वे खेत से नहीं हटेंगे या अधिक कर नहीं देंगे। वे महाजनों और बागान मालिकों की चतुराई और बेईमानी के खिलाफ लड़ रहे थे उन्हें इस पर कोई आपत्ति नहीं थी कि उनसे मालगुजारी क्यों ली जाती है या कर्जों पर सूद क्यों देना पड़ता है। ये तो बस ये चाहते थे कि तय की गयी व्यवस्था में उनके साथ छल क्यों किया जाता हैं।
- किसानों को अपने कानूनी अधिकारों का आभास होने लगा था। वे उन्हें अदालत के बाहर या अदालत के माध्यम से अपने विवादों को निपटाने लगे थे उनमें संगठनात्मक क्षमता दिखायी देने लगी थी। वे लोगों को किसी मुद्दे पर उभारने और आवश्यक कोष इकट्ठा करने का गुण सीख चुके थे
- किसानों का आंदोलन, राष्ट्रवादी आंदोलन के शुरुआती दौर में साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था को समझने में पूरी तरह असमर्थ था वे इसे बदल कर नीय व्यवस्थालाने की सोच ही नहीं सकते थे इसलिए किसानों के सभी संघर्ष उसी व्यवस्था में संशोधन के माध्यम से अपने समस्याओं का समाधाना चाहता था इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर पर जागृति का भी अभाव था। संभवतः उनसे इस तरह की आशा करना जल्दबाजी भी होगीं बहरहाल 20वीं शताब्दी में यहां के किसान मजदूर इस बात से पूरी तरह अवगत थे कि क्षेत्रीय एवं वर्ग आधारित जागृति क्या होती है और राष्ट्रीय स्तर पर उनकी जिम्मेदारी क्या है?
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