जापान में तोकुगावा युगीन शासन – तोकुगावा शासन विरोधाभासयुक्त था, क्योंकि एक और हम इसमें केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति पाते हैं तो दूसरी ओर सामन्तों की स्वायत्तता भी दिखायी देती हैं। इस प्रणाली में एक-दूसरे पर निर्भर अनेक श्रेणियाँ थीं। शीर्ष पर सम्राट था। सिद्धान्ततः लौकिक एवं आध्यात्मिक दृष्टियों से यही जापान का सर्वोच्च शासक था, उसकी पदवी थी ‘महान जापान के देवता का परमपुत्र’ (दाई निप्पन ताइकोकू तेथे)। परन्तु 13वीं शताब्दी से यह केवल राज्य करता आया था, शासन नहीं।
सम्राट का पद जापान में अत्यन्त प्राचीनकाल से चला आ रहा है। (जापानियों के अनुसार ई. पू. 660 ई. से और आधुनिक विद्वानों के अनुसार ई. सन् 40 के लगभग से)। जापान का राजवंश सूर्यदेवी ओमीकामी अमातरेस से सम्बद्ध माना जाता है। प्रारम्भ से जापान में इसी वंश का शासन रहा है। जापान की राष्ट्रीयता एवं देश प्रेम का केन्द्रबिन्दु वही है। सम्राट की अनुल्लंघनीयता एवं पवित्रता पर अत्यधिक जोर दिया जाता है, परन्तु देवपुत्र होने के नाते उसे एक पवित्र व्यक्तित्व प्रदान कर सत्ता से प्रायः सर्वथा वंचित कर दिया गया। प्रारम्भ से ही सम्राट के स्थान पर प्रायः संरक्षकों, क्वाम्पाकू व शोगुनों द्वारा ही शासन होता. आया है। शोगुन और दरबारियों के अतिरिक्त शेष सभी उसे प्रायः विस्मृत कर चुके थे यद्यपि 19वीं शताब्दी के नवोत्पन्न देशप्रेम का प्रेरणा स्रोत यही था सम्राट ही पूर्ण सत्ताधारी माना जाता था उसे सम्मानसूचक उपाधि प्रदान करने का भी अधिकार था, इसलिए जापान में यूरोपीय पद्धति के संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना अपेक्षाकृत सुगम रही केवल सम्राट के नाम पर शासन करनेवाली संस्था में ही वहाँ परिवर्तन होना था। नयी व्यवस्था होने पर शोगुन का स्थान मंत्रिमण्डल ने ले लिया। दोनों ही स्थितियों में सम्राट को ही सत्ता का वास्तविक स्रोत माना जाता रहा।
शोगुन
सम्राट के नाम पर सत्ता का वास्तव में उपभोग करने वाले शोगुन सैनिक सामन्ती प्रणाली के प्रमुख होते थे ये ही वास्तविक शासक थे जो येडो से शासन का संचालन करते थे, यद्यपि उनकी नियुक्ति स्वयं सम्राट द्वारा होती थी और सिद्धान्ततः वे सम्राट से ही सत्ता प्राप्त करते थे। तोकुगावा कुल के तीन प्रारम्भिक शोगुन इयेय इयेमित्सू के बाद उनके उत्तराधिकारी प्रायः उच्च परिषद् (तोशीयोरी) या निम्न परिषद् के हाथों की कठपुतली बन गये।
नीति-निर्धारण के लिए शोगुन उच्च परिषद् पर निर्भर थे। परिषद् का एक सदस्य, शोगुन के अवयस्क होने की स्थिति में, उसके संरक्षक पद पर कार्य करता था। सम्राट के दरबार तथा सामन्ती सरदारों के साथ शोगुन के सम्बन्धों का निर्धारण भी यही परिषद करती थी। तीसरे शोगुन इयेमित्सू की मृत्यु के पश्चात (सन् 1651 ई.) श्रेष्ठजनों की एक सभा (रोज), जिसका अध्यक्ष बारी-बारी से बदलता रहता था, शासन की सर्वोच्च संस्था बन गयी।
भारतीय समाज के सन्दर्भ में सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
प्रायः शोगुन व उसकी परिषद् पर निम्नपदस्थ अधिकारियों का नियन्त्रण होता था जो तोकुगावा कुल के कार्यवाहक समुराई कहलाते थे और वास्तविक शासनकर्ता थे। यही जापान की विशाल नागरिक सेवा प्रणाली अथवा नौकरशाही थी जिसमें शामिल समस्त कार्यकारी, प्रशासनिक एवं न्यायिक अधिकारी, निम्न पदीय कर्मचारियों सहित, सरकार के विभिन्न पक्षों का नियमन करते थे। इन पदों पर अधिकांशतः तोकुगावा व फूदाई सामन्त परिवारों के सदस्य ही नियुक्त किये जाते थे। इन अधिकारियों के दायित्व प्रायः स्पष्ट नहीं थे
शासन में व्यक्ति की अपेक्षा परिषद् ही मुख्य स्थान रखती थी चाहे सामन्ती जागीर हो या गाँव का स्थानीय शासन हो अथवा शोगुनशाही। बड़े सामन्तों का शासन गठन प्रायः शोगुनशाही के अनुरूप था। यद्यपि प्रत्येक सामन्ती जागीर के अपने विधिविधान थे और अपनी पृथक कर पद्धति थी, तथापि उसका आदर्श तोकुगावा द्वारा स्थापित व्यवस्था ही थी। ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थे। ग्राम शासन, दाइम्यो के जिलाधिकारियों की देख-रेख में, ग्राम-मुखिया व पार्षद चलाते थे।
दाइम्यो- ये बड़े क्षेत्रीय सामन्त थे जिन पर येडो की शक्ति निर्भर करती थी। येडो के बाहर ये ही सर्वाधिक शक्तिशाली थे। ये ही जागीरों पर शासन करते थे। सर्वप्रथम इनकी नियुक्ति तोकुगावा शोगुनों द्वारा की गयी परन्तु, कालान्तर में ये वंशक्रमानुगत सामन्त सरदार बन बैठे। शोगुन के अधीन होते हुए भी दाइयों पर्याप्त मात्रा में स्वतन्त्र थे उनका गढ़ स्वतन्त्र आर्थिक, राजनीतिक व सैनिक इकाई बन गया जिसके अपने पृथक कानून, रस्म और रिवाज थे। कर वसूलने, कर की दरें तय करने और अपराधियों को दण्ड देने के लिए न्यायाधीश नियुक्त करने का अधिकार भी दाइम्यो ने अपने हाथों में ले लिया। दाइम्यो की सम्पूर्ण सम्पत्ति का वारिस ज्येष्ठ पुत्र होता था। स्त्रियाँ समस्त अधिकारों से वंचित थीं।
बड़े सामन्तों के नीचे उपसामन्त और उपसामन्तों के नीचे छोटे सामन्त होते थे। ये सभी अपने योद्धाओं पर निर्भर करते थे जो समुराई कहलाते थे। दुर्जेय योद्धा होने के साथ ही, ये विद्वान् भी थे। वे प्रशासन में भी सहायक थे, अतः उनका विशेष महत्व था। अन्य कार्यों हेतु दाइम्यों कारो नामक कारिदों पर आश्रित थे।
उपरोक्त समस्त वर्ग परस्पर आश्रित थे। नीचे वाले ऊपर वाले से शक्ति एवं जीविका प्राप्त करते थे और अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए निचले वर्ग पर निर्भर था। परिवार के मुखिया की विशेष स्थिति थी परन्तु वह स्वच्छन्द नहीं था।
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