मार्शल द्वारा ‘मूल्य व वितरण – मार्शल विगत् शताब्दी के एक महान् अर्थशास्त्री थे। मार्शल के अर्थशात्र की आर्थिक विचारधारा और नीति के क्षेत्र में अब तक गहरा प्रभाव है और निकट भविष्य में उसके समाप्त होने के आसार नहीं हैं। हैने के शब्दों में, “मार्शल के आर्थिक विचारों के इतिहास में एक ऐसे व्यक्ति के रूप में आदर पाते रहेंगे, जो मूल्य और वितरण का एक सामंजस्यपूर्ण सिद्धान्त प्रस्तुत करने की दिशा में किसी भी पूर्णाधिकारी की अपेक्षा कहीं अधिक प्रगति की है।” मार्शल ने अनेक आर्थिक विचारों को समृद्ध बनाया लेकिन मूल्य और वितरण के क्षेत्र में उनका विशेष उल्लेखनीय है।
मूल्य के क्षेत्र में मार्शल का योगदान
1.माँग तथा पूर्ति सन्तुलन विश्लेषण
मार्शल के अनुसार मूल्य का निर्धारण माँग व पूर्ति के साम्य द्वारा होता है। उन्होंने माँग के विषय में कहा कि व्यक्ति किसी वस्तु को माँग उससे प्राप्त उपयोगिता के आधार पर ही करते हैं। अतः उसे जितनी सीमान्त उपयोगिता वस्तु से प्राप्त होती है, उसके बराबर मूल्य ही वह वस्तु के लिए देगा। इस मूल्य को मार्शल ने माँग मूल्य कहा है।
पूर्ति के सम्बन्ध में मार्शल ने बताया कि वस्तु का मूल्य इसलिए माँगा जाता है, क्योंकि उत्पादक को उत्पादन में कुछ लागत लगानी पड़ती है। अतः सीमान्त उत्पादन व्यय को ‘पूर्ति मूल्य’ कहा है।
इस प्रकार मार्शल का मानना है कि मूल्य माँग मूल्य और पूर्ति मूल्य के साम्य बिन्दु पर निश्चित होता है। माँग मूल्य वस्तु के मूल्य की उच्चतम सीमा होगी, जबकि पूर्ति मूल्य उसकी न्यूनतम सीमा होगी। इन दोनों सीमाओं के बीच में ही वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर तय होता है, जहाँ वस्तु की कुल पूर्ति उसकी कुल माँग के बराबर हो जाती है।
2. समय तत्त्व की भूमिका
मार्शल के अनुसार मूल्य निर्धारण पर समय के तत्त्व का भी बहुत प्रभाव पड़ता है-बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य बाजार मूल्य का सम्बन्ध अल्पकाल और सामान्य-मूल का सम्बन्ध दीर्घकाल से है, अर्थात् बाजार मूल्य अल्पकाल में प्रचलित होता है और सामान्य मूल्य दीर्घकाल में अल्पकाल में समय इतना कम होता है कि पूर्ति को माँग से होने वाले परिवर्तनों के अनुसार समायोचित होने का अवसर नहीं मिलता, जिस कारण मूल्य पर पूर्ति की अपेक्षा माँग का अधिक प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत दीर्घकाल में पूर्ति को समायोचित होने के लिए समुचित अवसर मिल जाता है, जिस कारण मूल्य हर माँग की अपेक्षा पूर्ति का अधिक प्रभाव पड़ता है। संक्षेप में मूल्य पर समयावधि के अनुसार माँग और पूर्ति का अधिक प्रभाव पड़ता है।
3. मूल्य निर्धारण के लिए मांग व पूर्ति दोनों आवश्यक
अल्पकाल में पूर्ति की सीमितता के कारण वस्तु के मूल्य में माँग के परिवर्तनों के अनुसार परिवर्तन होते हैं। दीर्घकाल में जहाँ सामान्य मूल्य होता है, वहाँ मूल्य के निर्धारण में उत्पादन लागत की विशेष महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि प्रायः सामान्य मूल्य उत्पादन लागत के ही बराबर होता है। यही बात संस्थापित अर्थशास्त्री कहते थे, किन्तु मार्शन ने अधिक अच्छे ढंग से कही। दूसरी ओर अल्प समय में बाजार मूल्य क्रेता की वस्तु से प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता के आधार पर मोल-भाव द्वारा निर्धारित होता है। इस तरह वे आस्ट्रियन सम्प्रदाय के विचार को मान्यता देते हैं। मार्शल ने मूल्य विषयक वाद-विवाद को एक वैज्ञानिक रूप देकर महान कार्य किया। इस सम्बन्ध में हैने लिखते हैं कि “मार्शल ने माँग पक्ष पर आस्ट्रियन सम्प्रदाय के कुछ विश्लेषण का प्रयोग किया है, किन्तु पूर्ति पक्ष पर वह संस्थापित सम्प्रदाय के लागत सम्बन्धी विचार को भी स्वीकार कर लेते हैं।
4. लागत पक्ष का विश्लेषण
मार्शल ने मूल्य सिद्धान्त के साथ ही लागत पक्ष का भी विस्तृत वर्णन किया है। उन्होंने उत्पादक लागत को दो वर्गों में विभाजित किया है वास्तविक लागत और द्राव्यिक लागत। वास्तविक लागत की व्याख्या करते हुए वह लिखते हैं कि “किसी वस्तु के उत्पादन में प्रयुक्त होने वाली पूँजी में संचय के लिए आवश्यक समय अथवा प्रतीक्षा और वस्तु को बनाने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग होने वाले विभिन्न प्रकार के श्रमों का बलिदान। ये सब मिलकर वस्तु के उत्पादन की वास्तविक लागत कहलाते हैं। द्राव्यिक लागत से उनका आशय उन द्रव्य राशियों के योग का है जो कि इन श्रमों और बलिदानों के लिए देनी होंगी। इन्हें संक्षेप में उत्पादन व्यय भी कहते हैं। ये वह कीमतें हैं जो वस्तु के उत्पादन के लिए प्रयत्नों और प्रतीक्षा की पर्याप्त पूर्ति प्राप्त कर सकने हेतु दी जानी अनिवार्य है अन्यथा उत्पादन कार्य रुक जायेगा।
वितरण के क्षेत्र में मार्शल का योगदान
अपने विश्लेषण में मार्शल ने वस्तुओं के संगठन अंगों और उत्पत्ति साधनों के बीच सम्बन्धों की एक श्रृंखला स्थापित की है। मूल्य सिद्धान्त का विवेचन करते हुए उन्होंने बताया था कि सामान्य मूल्य लागतों से मिलकर बनता है और ये लागतें उत्पत्ति साधनों की पूर्ति मूल्य होती हैं ये पूर्ति मूल्य ही उत्पादन में उनके हिस्से का निर्धारण करते हैं। माँग और पूर्ति के बीच के साम्य के विचार को मार्शल अपने वितरण सिद्धान्त में लागू करते हैं। उपभोग वस्तुओं और उत्पत्ति-साधनों दोनों ही के मूल्य निर्धारण में वह सीमान्त विश्लेषण को प्रयोग में लाते हैं। सभी मूल्य प्रतिस्थापन की क्रिया के द्वारा वस्तुओं और सीमाओं के प्रयोग के सीमान्त पर एक- दूसरे के साथ सम्बन्धित होते हैं। समय घटक की सहायता से मार्शल मूल्य को निर्धारित करने वाली साधन आय और मूल्य से निर्धारित होने वाली साधन आयों के मध्य एक अन्तर रेखा खींच देते हैं। भूमि के लगान की दशा को छोड़कर सब दशाओं में उक्त अन्तर निरपेक्ष नहीं होता। अल्पकाल में अनेक साधनों की आय लगान सदृश्य होती हैं, उन्हें वे ‘आभास लगान’ कहते हैं।
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1.राष्ट्रीय आय की परिभाषा
वितरण सिद्धान्त की समीक्षा करने से पहले यह उचित होगा कि हम मार्शल द्वारा दी गई राष्ट्रीय आय की परिभाषा को समझ लें। मार्शल के अनुसार, किसी देश का श्रम और पूँजी वहाँ के प्राकृतिक साधनों के सहयोग से भौतिक अभौतिक वस्तुओं और सेवाओं का एक शुद्ध योग उत्पन्न करते हैं। ‘शुद्ध’ शब्द का प्रयोग कच्चे और अर्द्धनिर्मित माल की लागत तथा उत्पादन संयन्त्र की घिसाई व टूट-फूट के लिए आयोजन को सूचित करने हेतु किया गया है। ऐसे सब आयोजन या व्यय को कुल उपज में घटा देने से शुद्ध या सच्ची आय मालूम हो जाती है। विदेशी विनियोगों से प्राप्त शुद्ध आय को जोड़ दिया जाना चाहिए। यही देश की ‘वास्तविक शुद्ध वार्षिक आय’ का ‘राष्ट्रीय लाभांश है।
2. उत्पत्ति के साधन
सम्भवतः अंग्रेज संस्थापित अर्थशास्त्र के प्रभाव के कारण वे उत्पत्ति के केवल तीन स्पष्ट साधन होना मानते हैं-भूमि, श्रम और पूँजी संगठन के महत्त्व को वे न समझे हों, ऐसी बात नहीं है। उन्होंने साहसी को अपने अंग्रेज पूर्वाधिकारियों की अपेक्षा कहीं अधिक स्पष्ट तथा महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान की। वे उसे एक ऐसा महान् साधन समझते हैं, जो श्रम, भूमि और पूँजी के प्रयोग में प्रतिस्थापन का नियम लागू करता है, फिर भी यह सत्य है कि मार्शल ने साहस को या तो श्रम की एक विशिष्ट दशा अथवा अर्द्ध लगान पाने वाला भिन्नात्मक लाभ माना है।
3. उत्पत्ति-साधनों के हिस्से का निर्धारण
उत्पत्ति साधनों को अपने पुरस्कार राष्ट्रीय आय में से प्राप्त होते हैं। राष्ट्रीय आय जितनी अधिक होगी, प्रत्येक उत्पत्ति-साधन का हिस्सा उतना ही अधिक होगा। राष्ट्रीय आय में से भूमि पति को लगान, श्रमिकों को वेतन और पूँजीपति को विनियोगों पर ब्याज दिया जाता है। इस प्रकार का विभाजन ही वितरण कहलाता है। वितरण की समस्या उन नियमों या सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने से सम्बन्धित है, जिसके अनुसार राष्ट्रीय आय का वितरण उत्पत्ति साधनों के मध्य किया जाना चाहिए। मार्शल ने बताया कि वितरण को सरल नियम प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। उनके मतानुसार प्रत्येक उत्पत्ति-साधन माँग और पूर्ति की शक्तियों से शासित होता है। उसका प्रयोग उत्पादन में लाभदायक की सीमा तक होता है, अर्थात् उस बिन्दु तक प्रयोग किया जाता है जहाँ पर उसकी सीमान्त उत्पादकता और उसकी सीमान्त लागत बराबर हो जायें। सीमान्त उत्पादकता तो उस साधन के माँग मूल्य को निर्धारित करती हैं, किन्तु सीमान्त लागत उसके पूर्ति- मूल्य को दीर्घकाल में भूमि को छोड़कर अन्य सब साधनों की पूर्ति उनकी उत्पादन लागत से निर्धारित होती है।
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