निर्वाचन आयोग के गठन – निर्वाचन व्यवस्था (Election System) लोकतंत्र के प्राण (Life) व स्वतन्त्र निर्वाचन का संचालन संसदीय जनतंत्र की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यवस्था में निर्वाचन प्रक्रिया का महत्त्व होता है, किन्तु संसदीय जनतंत्र में तो इसका अपना एक विशेष स्थान व बड़ा महत्त्व है। लोकतंत्र में चुनाव किस प्रकार होते हैं, यही महत्त्वपूर्ण है। निर्वाचन आयोग द्वारा संचालित निर्वाचन प्रक्रिया कितनी स्वतन्त्र व विश्वसनीय है, यह महत्त्वपूर्ण है।
संगठन एवं कार्य निर्वाचन के अनुच्छेद 324 के अन्तर्गत निर्वाचनों का नियंत्रण, निरीक्षण व निर्देश के लिए निर्वाचन आयोग की स्थापना की गयी है। अब निर्वाचन आयोग तीन सदस्यीय है। एक मुख्य चुनाव आयुक्त व दो चुनाव आयुक्त हैं। राष्ट्रपति इनकी नियुक्ति मंत्रिमंडल के परामर्श से करता है। निर्वाचन आयोग के परामर्श से प्रादेशिक आयुक्तों की भी नियुक्ति राष्ट्रपति कर सकता है। मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष का आयु जो भी पूर्व हो तक होता है तथा अन्य आयुक्तों की 62 वर्ष उम्र या 6 वर्ष जो भी पहले हो। 1993 से मुख्य निर्वाचन आयुक्त व अन्य के वेतन व भत्ते सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समान होगा ।
इन्हें मनमाने ढंग से नहीं हटाया जा सकेगा कदाचरण पर महाभियोग की प्रक्रिया के माध्यम से राष्ट्रपति द्वारा पदच्युति हो सकेगी। सबसे पहली बार 1951 में एक सदस्यीय निर्वाचन आयोग का गठन किया गया तथा 1993 के अध्यादेश द्वारा पुनः शेषन के विरोध के बावजूद बी.जी. कृष्ण मूर्ति व एस.एस. गिल को आयुक्त नियुक्त किया गया। निर्णय सर्वसम्मति या बहुमत से होंगे। वर्तमान समय में तीन सदस्यीय आयोग की स्थिति बनी हुई है।
कार्य, शक्ति व भूमिका
निर्वाचन से सम्बद्ध समस्त व्यवस्ता करना निर्वाचन आयोग का संवैधानिक अधिकार, कार्य व शक्ति ही नहीं, वरन् प्रमुख दायित्व भी है। संविधान के अनुच्छेद 324 के अन्तर्गत उसे निर्वाचन हेतु व्यापक अधिकार प्रदान किये गये हैं। आयोग के प्रमुख कार्य व प्रभावी भूमिका इस प्रकार है-
- सर्वप्रथम चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन या सीमांकन करना उसका प्रमुख कार्य है। संसद द्वारा पारित परिसीमन आयोग 1952 के आधार पर प्रत्येक 10 वर्ष में निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन होता है।
- मतदाता सूचियाँ तैयार कराना भी महत्वपूर्ण कार्य है। इसके द्वारा प्रत्येक लोक सभा व विधानसभा के चुनावों या मध्यावधि के पूर्व मतदाता सूचियाँ तैयार करायी जाती हैं। आजकल यह कार्य कम्प्यूटर द्वारा किया जाता है।
- विभिन्न राजनीतिक दलों को मान्यता प्रदान करना भी निर्वाचन आयोग का ही कार्य है। इस सम्बन्ध में वह कोई भी आधार निश्चित कर सकता है।
- आयोग द्वारा राजनीतिक दलों को आरक्षित चुनाव चिह्न भी प्रदान किया जाता है। यदि दो दलों के बीच उसको लेकर विवाद हो चुनाव आयोग को निष्पक्ष निर्णय देना पड़ता है। कांग्रेस व जनता पार्टी को लेकर यह विवाद उत्पन्न हुआ, अतः पुराने चुनाव चिह्नों को सील कर दिया गया था तथा नवीन चुनाव चिह्न दिये गये थे। इसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील भी हो सकती है।
- स्वतन्त्र व निष्पक्ष निर्वाचन कराना आयोग का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। चुनाव के विषय में केन्द्र व राज्य सरकार से परामर्श प्राप्त करते हुए निर्णय चुनाव आयोग ही लेता है। उसे चुनाव प्रक्रिया के निरीक्षण व नियंत्रण का पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं।
- संविधान के द्वारा उसे कुछ अर्द्ध-न्यायिक कार्य भी प्रदान किये गये हैं। अनुच्छेद 103 के अन्तर्गत राष्ट्रपति आयोग से संसद सदस्यों की अयोग्यताओं (Disqualifications) के विषय में परामर्श कर सकता है तथा 192वें अनुच्छेद के अनुसार विधानमण्डल के सदस्यों के विषय में राज्यपाल को यह अधिकार दिया गया है। इसके अतिरिक्त उसके अन्य कार्य भी हैं। यथा-राजनीतिक दलों के लिए आचार संहिता तैयार करना, आकाशवाणी में दलों को चुनाव प्रचार की सुविधाएं प्रदान करना, उम्मीदवारों के व्यय की राशि निश्चित करना, मतदाताओं को राजनीतिक प्रशिक्षण देना तथा चुनाव याचिकाओं आदि के विषय में सरकार को आवश्यक परामर्श देना। समय-समय पर सरकार को अपने कार्यों के विषय में प्रतिवेदन देते रहना व चुनाव सुधारों के लिए सुझाव देते रहना भी उसका प्रमुख कार्य है।
आयोग की निष्पक्षता व स्वतन्त्रता
प्रायः यह प्रश्न उठाया जाता रहा है कि क्या भारतीय निर्वाचन आयोग निष्पक्ष व स्वतन्त्र है? “क्या उसकी स्वतन्त्र संवैधानिक स्थिति है? जहाँ तक संवैधानिक स्थिति का प्रश्न है। वह निश्चय ही एक स्वतन्त्र संवैधानिक निकाय (Free Constitutional Body) है व संविधान इस बात को सुनिश्चित करता है कि यह उच्चतम व उच्च न्यायालयों की भाँति कार्यपालिका के बिना हस्तक्षेप के स्वतन्त्र व निष्पक्ष रूप से अपने कार्यों को सम्पादित कर सके।” इसके लिए.. संविधान में पर्याप्त प्रावधान किये गये हैं।
जहाँ तक व्यावहारिक स्थिति का प्रश्न है तो अब तक का अनुभव यह दर्शाता है कि “निर्वाचन आयोग ने निष्पक्ष स्वतन्त्र होकर ही अपने दायित्वों का निर्वहन किया है।” इसमें 1992 के बाद विशेष परिवर्तन आया है। आज उसकी स्वतन्त्र व निष्पक्ष भूमिका की चर्चा विशेष रूप से होती है। गुजरात विधानसभा के समय पूर्व निर्वाचन की सरकार की माँग को ठुकरा कर तथा वातावरण का खुद जायजा लेकर उसने अपनी स्वतन्त्रता व निष्पक्षता एवं प्रभावी भूमिका का परिचय स्वयं दे दिया है। सरकार को इस विषय में सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श के लिए जाना पड़ा है। इससे बड़ा प्रमाण उसकी निष्पक्षता व स्वतन्त्रता का और क्या हो सकता है? कुल मिलाकर संवैधानिक दृष्टि से आयोग को निष्पक्ष व स्वतन्त्र बनाया गया है, व व्यवहार में भी उसने इसे सिद्ध कर दिया है।
चुनाव आयोग की भूमिका
चुनाव आयोग की महत्वपूर्ण भूमिका (1991-2009) के मध्य विशेषकर बहुत बहुआयामी रही। इस भूमिका की संक्षेप में विवेचना हम निम्न रूपों में कर सकते हैं-
(1) राजनीतिक दलों की संक्षेप में विवेचना हम निम्न रूपों में कर सकते हैं- 1992-98 के मध्य निर्वाचन आयोग के कार्य व उसकी भूमिका (Role) में निश्चित रूप से वृद्धि हुई है। इसके पूर्व राजनीतिक दलों द्वारा कभी अपने संगठनात्मक चुनाव नहीं कराये गये थे। 1996 के आयोग के निर्देशानुसार 1997 तक व फिर 2000 के दलों द्वारा पुनः संगठनात्मक निर्वाचन कराये गये। इस प्रकार मुख्य चुनाव आयुक्त व आयोग द्वारा राजनीतिक दलों को आन्तरिक तोकतंत्र (Internal Democracy) की दिशा में आगे बढ़ाने का कार्य किया गया है।”
(2) बाहुबल, धनबल व फर्जी मतदान पर रोक लगाना- निर्वाचनों में 1991 के पूर्व तक बाहुबल, धन बल व फर्ती मतदान व सत्ता के दुरुपयोग (Missuse) की स्थितियों में निरन्तर वृद्धि होती जा रही थी तथा निर्वाचन व्यवस्ता दूषित हो रही थी। अतः 1991 में श्री शेषन की मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्ति के बाद इस दिशा में सक्रिय प्रयास शुरू हुए ‘और उन्होंने स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव कराने का संकल्प लिया और उसे बहुत कुछ पूरा करके दिखला दिया।” इस दृष्टि से विभिन्न निर्देश जारी किये गये तथा निर्वाचन तंत्र को महत्वपूर्ण व मशीनरी को चुस्त दुरुस्त व सशक्त किया गया। इससे धनबल व बाहुबल को काफी कुछ सीमित किया जा सकता है। यू.पी. व बिहार जैसे प्रान्तों में विशेष ध्यान दिया गया। फर्जी मतदान रोकने हेतु पहचान-पत्रों की व्यवस्था की गयी।
(3) आयोग द्वारा अपनी पहचान व शक्ति का एहसास कराया जाना-इन सबके अतिरिक्त निर्वाचन आयोग द्वारा अपनी स्वतन्त्र पहचान, बहुआयामी भूमिका व महत्त्वपूर्ण स्थिति का भी सभी पक्षों को एहसास कराया। अपने दायित्व, भूमिका व आचरण के आधार पर उसने सभी पक्षों को समझाया कि निर्वाचन आयोग में अपने निर्देशों व आचार संहिता (Code of Conduct) के पालन कराने की क्षमता (Capacity) है तथा फर्जी मतदान व बूथ कैप्चारिंग की घटना पैदा हुए तो मतगणना के पूर्व ही चुनाव को निरस्त किया जा सकता है। ऐसा कई स्थानों पर किया भी गया।
(4) निर्वाचन व्यवस्था की त्रुटियों व बुराइयों पर नियंत्रण में सहायता प्राप्त होना – इन उपायों चुनाव सुधारों से सम्बद्ध सुझावों व आयोग द्वारा धारण की गयी संकल्प शक्ति के आधार पर आयोग द्वारा निर्वाचन व्यवस्था की कमियों, त्रुटियों व बुराइयों को पर्याप्त सीमा तक नियंत्रित करने में सहायता प्राप्त हुई।
वस्तुतः अब तक का राजनीतिक दलों व सरकार का आचरण यही दर्शाता है कि वे निर्वाचन सुधारों को अपना दिली सहयोग नहीं प्रदान करना चाहते तथा निर्वाचनों से धन शक्ति व अपराधीकरण की छाया व प्रभाव से अपने आप को मुक्त नहीं रखना चाहते।” किन्तु निर्वाचन आयोग को अपने प्रयत्न जारी रखने चाहिए तथा जनता को जागृत करने का प्रयास करना चाहिए। संक्षेप में निर्वाचन आयोग ने अपनी निर्वाचन सम्बन्धी भूमिका का निर्वाह काफी ईमानदारीपूर्वक व दृढ इच्छा शक्ति के आधार पर किया है और कर भी रहा है।