पिछड़े वर्गों की समस्याएं ( problems of backward classes) – परम्परागत रूप में पिछड़े वर्गों की समस्याएँ लगभग वही हैं जो अन्य निर्बल वर्ग (weaker section) जैसे अनुसूचित जातियों की हैं। हाँ उनकी मात्रा (Quantity) में अन्तर अवश्य है। वह यह कि अनुसूचित जनजातियों की तुलना में पिछड़े वर्गों की समस्यायें कुछ कम गम्भीर हैं। संक्षेप में पिछड़े वर्गों की समस्यायें निम्नलिखित है-
- आर्थिक समस्यायें (Economic Problems) जैसे निर्धनता बेकारी, कृषि पर निर्भरता, आर्थिक शोषण आदि ।।
- सामाजिक पिछड़ापन (Social Backwardness
- निरक्षरता (Illiteracy)
- स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्यायें (Health Problems)
- रहन-सहन का निम्न स्तर (Lower Standard of Living)
- निर्योग्यताओं की समस्या (Problemm of Disabilities)
- राजनीतिक एकीकरण की समस्यायें (Problems of Political Integration)
पिछड़े वर्गों के विकास के प्रयास (Efforts for Development of Backward Classes)
(1) सामाजिक
आर्थिक प्रगति हेतु अनेक कार्यक्रमों का सम्पादन जहाँ तक निर्बल या कमजोर वर्गों के लोगों के सामाजिक, शैक्षिक एवं आर्थिक विकास का प्रश्न है, इस दिशा में विविध सरकारी साधन क्रियाशील हैं। छठवीं पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत व्यापक आर्थिक पोषण प्रदान कर विशेषकर अनुसूचित जाति, जनजाति तथा पिछड़ी जाति के समग्र से 5 प्रतिशत परिवारों को ‘गरीबी रेखा’ (Poverty Line) के ऊपर उठाने का प्रावधान रहा। औपचारिक तौर पर 80.71 लाख अनुसूचित जाति के परिवारों और 30.06 लाख जनजातीय परिवारों को गरीबी रेखा से स्तरोन्नत किया गया। इसी योजना में केन्द्रीय सरकार के आर्थिक पोषण द्वारा राज्यों में अनुसूचित जाति विकास निगमों की स्थापना की गयी। सातवीं पंचवर्षीय योजना में इसे उत्तरोत्तर अग्रसर करने के कार्यक्रम संचालित हुए तथा समन्वित जनजातीय विकास कार्यक्रम संचालित किया गया।
कार्ल मार्क्स के अनुसार संघर्ष का सिद्धान्त।
सातवीं योजना के अन्तर्गत क्रमशः
- समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम,
- राष्ट्रीय ग्रामीण विकास कार्यक्रम
- ग्रामीण भूमिहीन रोजगार प्रतिभूति कार्यक्रम,
- (4) अनुसचित जाति, जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के विकास हेतु सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक कार्यक्रम आदि विशेष प्रभावी कदम हैं।
(2) आरक्षण का प्रावधान
इस प्रकार सातवीं योजना विशेषकर निर्बल वर्गों में निर्धनता या गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों से जुड़ी रही है।
यह विडम्बना है, या राजतन्त्रीय अधिकारी तंत्रीय दोष या उदासीनता कही जा सकती है। कि राजकोष का व्यापक अंश खर्च करके भी अपेक्षित उद्देश्य प्राप्ति यथार्थ न हो सकी है। इसी दिशा में बहुचर्चित ‘पिछड़ा वर्ग आयोग’ या मण्डल आयोग 1680 में भारत सरकार को | सिफारिशों सहित प्रस्तुत किया गया। विरोधाभासों से युक्त तथाकथित मंडल आयोग द्वारा विशेष रूप से पिछड़ी जातियों के लोगों के शिक्षा, सरकार सेवाओं और राजनीति में प्रतिनिधित्व हेतु आरक्षण की संस्तुतियाँ विचाराधीन हैं। दस वर्षों बाद 1660 में सरकार द्वारा उक्त आयोग की संस्तुतियों के लागू करने के उद्घोष पर इसमें निहित विसंगतियों पर लेखकों, विचारकों, राजनीतिक समीक्षकों, बुद्धिजीवियों से लेकर जनसामान्य तथा युवा छात्र-छात्राओं ने प्रबल राष्ट्रव्यापी विरोध एवं आत्मदाह के द्वारा यह प्रकट कर दिया है कि आयोग की संस्तुतियों विसंगतियों से युक्त हैं और भारतीय समाज का बहुसंख्यक उन संस्तुतियों को अंगीकार करने को तैयार नहीं है। ऐसी संस्तुतियों एवं प्रतिवेदनों को जनतन्त्र में ज्यों का त्यों लागू नहीं किया जा सकता था। इसका पुनर्समाकलन और पुनरीक्षण सामयिक प्रसंग में करके नवीन संस्तुतियाँ निर्मित करना ही विशेष समय प्रासंगिक होगा।
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