तत्व एवं सार सिद्धान्त की अवधारणा क्या है ?

तत्व एवं सार सिद्धान्त की अवधारणा- एक विधान मण्डल द्वारा बनाई गई विधि जब दूसरे विधान मण्डल के क्षेत्र का अतिक्रमण करती है तो उभर कर सामने आती है। दूसरे शब्दों

में जब एक विधानमण्डल द्वारा बनाई गई कोई विधि दूसरे विधानमण्डल के भी क्षेत्र में अतिक्रमण करती है तो इस बात के अवधारण करने के लिए कि प्रश्नास्पद विधान उस विधानमण्डल की शक्ति के अधीन आता है या नहीं, जिसने उसे बनाया है, न्यायालय सार तत्व का सिद्धान्त लागू करता है। प्रायः अधिनियमों में ऐसे उपबन्ध होते हैं, जो आनुषंगिक रूप से दूसरे विधानमण्डल के विधान विषयों पर अतिक्रमण करते हैं। यदि शाब्दिक निर्वाचन किया जाय तो इस प्रकार के विधान अवैध हो जाएँगे। किन्तु यदि विधान सारवान रूप से या विधान का वास्तविक उद्देश्य ऐसे विषय से सम्बन्धित है, जिस पर वह विधानमण्डल विधि बनाने में सक्षम है, तो उसे विधिमान्य घोषित किया जाएगा, भले ही वह वह दूसरे विधानमण्डल के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषय पर आनुषंगिक रूप से अतिक्रमण करता हो। उस विधान की वास्तविक प्रकृति तथा स्वरूप का पता लगाने के लिए पूरे अधिनियम पर विचार किया जायेगा और उसके उद्देश्य और विस्तार तथा उसके उपबन्ध के प्रभाव की जांच की जायेगी।

दुर्व्यपदेशन का अर्थ स्पष्ट करते हुए संविदा पर इसके प्रभाव का वर्णन कीजिए।Explain the meaning of misrepresentation and discuss its effect on contract.

उदाहरण- प्रीवी कौंसिल ने इस सिद्धान्त का प्रयोग प्रफुल्ल कुमार मुखर्जी बनाम बैंक ऑफ खुलना (A.I.R. 1947 P.C. 60 में किया।

इस वाद में बंगाल मनी लैण्ड्स एक्ट, 1946 की वैधता को चुनौती दी गयी जो कि वह राशि और ब्याज की दर पर प्रतिबन्ध लगाती थी। किसी भी ऋण पर जो वह देता था यह अवैध बंगाल विधान मण्डल के परनोटों सम्बन्धी विधि के आधार पर अवैध था क्योंकि परनोटों सम्बन्धी कानून केन्द्रीय विषय के अन्तर्गत आता है। प्रीवी कौंसिल ने निर्धारित किया कि बंगाल साहूकारी अधिनियिम सार और सारांश के अनुकूल रुपया उधार देने और साहूकारों के बारे में था और यह एक राजकीय विषय है। बेशक यह केन्द्रीय अधिकार क्षेत्र में कुछ अकस्मात प्रवेश करता था. कहने का उद्देश्य यह है कि यदि कोई विधि मूलतः अपने अधिकार क्षेत्र में बनायी गयी हो तो उसे स्वीकार किया जा सकता है चाहे वह थोड़ा बहुत दूसरे के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश करती हो।

बम्बई राज्य बनाम बालसरा (A.I.R. 1951 S.C.) के मामले में बाम्बे मद्यनिषेध अधिनियम, जिसके द्वारा राज्य में मादक द्रव्यों को खरीदने तथा रखने का निषेध कर दिया गया था, की सांविधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि वह संघ सूची में वर्णित विषय ‘मादक द्रव्यों के आयात-निर्यात पर अतिक्रमण करता है, क्योंकि मादक द्रव्यों के क्रय-विक्रय और उपयोग को रोकने से उसके आयात-निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम को बंध अभिनिर्धारित किया क्योंकि उसके अनुसार अधिनियम का मुख्य उद्देश्य राज्य- सूची के विषय से सम्बन्धित था, संघ सूची से नहीं।

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