तोकुगावा युगीन जापान की आर्थिक व्यवस्था का वर्णन कीजिए।।

तोकुगावा युगीन जापान की आर्थिक व्यवस्था-तोकुगावा कुल की शोगुनशाही की स्थापना के समय जापान की अर्थव्यवस्था प्रायः पूर्णरूपेण कृषि प्रधान थी। लगभग 80 प्रतिशत जनता कृषक थी और गाँवों में रहती थी। चांवल मुख्य उत्पादन था। विनिमय का माध्यम और समृद्धि का मापदण्ड भी चांवल ही था। सैनिक सरदारों आदि का वेतन चांवल के रूप में ही तय था। शासक वर्ग की हैसियत से दाइम्यो व समुराई किसानों के परिश्रम पर पलते थे। कृषक चांवल उत्पादक के रूप में देखे जाते थे। चांवल के अतिरिक्त ऊँची भूमि पर गेहूं, जौ, चाय व साग-सब्जियाँ भी उगायी जाती थीं खेत छोटे होते थे, अतः सघन खेती आवश्यक थी। उर्वरक के प्रयोग के सम्बन्ध में भी जापानी किसानों का विशेषज्ञ होना आवश्यक था। गाँव प्रायः आत्मनिर्भर थे। धातु के बर्तन, नमक व औषधि जैसी वस्तुओं को छोड़कर शेष वस्तुओं का निर्माण वे स्वयं ही कर लेते थे। उद्योगों में रेशम उद्योग एवं मत्स्य उद्योग प्रमुख थे। दक्षिण की गर्म जलधारा और उत्तर

की जलधारा के जापानी तट पर मिलने के कारण मत्स्य उद्योग के पनपने के लिए जापान की स्थिति अनुकूल थी। उद्योग श्रेणियों में संगठित थे, परन्तु ये संघ चीनियों की तरह न थे।

व्यापारी आदि हेय माने जाते थे, फिर भी 14वीं शताब्दी में वाणिज्य व्यापार व उद्योग का विकास तथा व्यापारी संघों की स्थापना हो गयी थी। तोकुगावा शासनकाल की शान्ति के फलस्वरूप, व्यापार को अनुत्साहित करने की नीति के बावजूद, जापान धीरे-धीरे चावल- अर्थव्यवस्था से मुद्रा अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर होने लगा। रेशम उत्पादन पर जोर देने से रेशम उद्योग का आशातीत विकास हुआ। मोम उद्योग भी पनपा गन्ना, कपास व चाय से भी अनेक उद्योगों का उद्भव हुआ। उत्पादन में वृद्धि हुयी और वस्तुओं का वृहत परिमाण में व व्यापक पैमाने पर विनिमय आरम्भ हुआ। अतः मुद्रा की आवश्यकता हुयी। पहले तो इसे भी चीन व कोरिया से आयात किया गया, परन्तु 17वीं शताब्दी में एक स्वर्ण-प्रतिमान टक्साल की स्थापना की गयी। करों के भुगतान के लिए मुद्रा के प्रयोग की अनुमति दी गयी। अन्ततः चांवल भी मुद्रा के बदले में बिकने लगा। भोग-विलास की दृष्टि से भी उद्योगों व मुद्रा अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन मिला। इन मांगों की पूर्ति के लिए एक व्यापारी वर्ग का विकास हुआ जिसने नये नगरों के निर्माण में योगदान दिया। ये ही लोग सामन्तों व सैनिकों के लिए बैंकर (महाजन) का कार्य करते थे। इस वर्ग के उद्भव के कारण नागरिक जीवन के महत्व में वृद्धि हुयी। येडो, क्योटो, ओसाका, नागासाकी आदि महान नगरों और महलों, दुर्गा व मन्दिरों का निर्माण हुआ। ओसाका, येडो आदि नगरों के चांवल बाजारों व माल- भण्डारों पर व्यापारियों का अधिकार हो गया जहीं, अपने व्ययों की पूर्ति के निमित्त, सामन्त आदि अपनी चांवल से प्राप्त आय का विक्रय करते थे।

भारतीय समाज के सन्दर्भ में सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ स्पष्ट कीजिए।

शोगुनाही की वित्तीय स्थिति अच्छी न थी स्थिति को सुधारने के लिये सोनी ने व्यापारियों के ऋण वसूलने आरम्भ किये, परन्तु नगरवासी (कारीगर, व्यापारी आदि) सामन्तों द्वारा आरोपित जन्तियों और प्रतिबन्धों व बलपूर्वक लिए जाने वाले ऋणों से त्रस्त एवं क्षुब्ध थे। वित्तीय स्थिति में सुधार के लिए मुद्रा में मिलावट भी की जाने लगी, फलतः मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हुई जिसका अर्थव्यवस्था पर और भी बुरा प्रभाव पड़ा। वस्तुओं के मूल्य में अत्यधिक वृद्धि हुई जिससे व्यापक असन्तोष उत्पन्न हुआ। दाइम्यो की आर्थिक स्थिति भी अच्छी न थी, परन्तु उन्हें न तो सिक्के दालने का अधिकार था न व्यापारियों से बलपूर्वक ऋण वसूल करने का फलतः वे शीघ्र ही अत्यन्त ऋणग्रस्त हो चले। अतिरिक्त आय प्राप्त करने के प्रयास में अनेक दाइम्यो ने अपनी जागीरों में विविध स्थानीय उत्पादनों पर एकाधिपत्य स्थापित कर लिया।

शोगुनशाही व दो दोनों ने ही अपने समुहों की चांलयों में कटौती करनी प्रारम्भ कर दी। विवश होकर समुराइयों को भी व्यापारियों से ऋण लेना पड़ा। जब इस प्रकार ऋणों का भारी बोझ से लद जाता था तो उससे उन्हें उन्हें मुक्त करने के लिए शोगुन शाही अनेक अवसरों पर अनुग्रहपूर्ण अधिनियम प्रसारित कर, किसी तिथि विशेष पूर्व लिये गये ऋणों को रद्द कर देती थी, परन्तु शीघ्र ही वे पुनः ऋणग्रस्त हो जाते थे। व्यापारियों ने स्थिति से लाभ उठाना आरम्भ कर दिया। दाइयों व समुराइयों को ऋण देकर वे उनके परिवार में, दत्तक का विवाह कराकर अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को ऊंचा उठाने लगे। विभिन्न उपायों से उन्होंने कृषक भूमि पर नियन्त्रण प्राप्त करना भी आरम्भ कर दिया ब किम्पनों पर अवैध वसूली भी आरोपित करने लगे। नगरों में आढ़ती (नागाकाई) और थोक सौदागर (तोड़गा) उन्नति कर रहे थे। ओसाका के चावल आढतियों और हुण्डी पर्चे के दलालों ने काफी धनराशि अर्जित की। मित्सुई परिवार जैसे व्यापारी घरानों की तरक्की हुई जिन्होंने जापान के नवीनीकरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जापान की सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों की इस नवीन प्रक्रिया से सामंजस्य स्थापित करने में असफल होने के कारण शांगुन निर्बल हो चले। वे राष्ट्रीय एकता को कायम रखने में भी अक्षम थे। फलतः 19वीं शताब्दी में जापान में क्रान्तिकारी वातावरण उत्पन्न हो गया। सन् 1853 ई. में कामोद्वार पेरी के आगमन के समय जापान इसी सामाजिक एवं आर्थिक संक्रमण की स्थिति में था जिसको रोकने में शोगुनशाही सक्षम न थी।

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