उद्म (आभासी) विधायन का सिद्धान्त का वर्णन कीजिए ।

उद्म (आभासी) विधायन का सिद्धान्त – उच्चतम न्यायालय ने के0सी0जी0 नारायण देव बनाम उड़ीसा राज्य के बाद में आभासी विधायन का अर्थ और प्रयोग क्षेत्र के सिद्धान्त को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है-

“यदि संविधान, विधायी शक्तियों का विधायी निकायों में वितरण करता है, जिन्हें कार्मिक क्षेत्रों में कार्य करना है, जिन्हें विशेष विधायी प्रविष्टियों में अंकित किया गया है और यदि ऐसी परिसीमायें विधायी अधिक पर मूल अधिकारों के रूप में है, सवाल उठता है कि विधान मण्डल किसी विशेष मामले में रखता है या नहीं रखता, उस विषय के सम्बन्ध में कानून के बारे में या उसे अधिनियमित करने के ढंग में, संवैधानिक शक्तियों की सीमाओं का उल्लंघन किया। ऐसा उल्लंघन पेटेन्ट प्रकट या प्रत्यक्ष परन्तु वह भेष में छिपाया भी हो सकता है, गुप्त या प्रच्छन्न, अप्रत्यक्ष या बाद की श्रेणी के मामले में विधायन का प्रयोग किया गया है। न्यायायिक घोषणाओं में इस कथन से यह विचार प्रस्तुत किया गया है कि बेशक देखने में एक विधान मण्डल एक कानून पारित करने में शक्तियों की सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करने का प्रयत्न करता था परन्तु सारांश में और यथार्थ में उसने उन शक्तियों का उल्लंघन किया और वह उल्लंघन जो प्रतीत होता है उसके पर्दे में हो, उचित परीक्षण करने पर वह केवल भेष बदलने का बहाना है । दूसरे शब्दों में अधिनियम का सारांश महत्वपूर्ण है केवल उसका रूप और बाह्य दिखावा नहीं। यदि उसके सारांश का विषय विधान मण्डल की शक्तियों से परे है कि वह उस रूप में कानून बना सके जिस भेष में कानून बनाया गया है, निन्दा से बच नहीं सकता है।’

विधानमण्डल संवैधानिक निषेधों को भंग नहीं कर सकता प्रत्यक्ष तरीकों का प्रयोग करके। यह याद रखने की बात है कि विधान मण्डल को आभासी विधायन की रचना नहीं करनी चाहिए। ऐसी विधियाँ असंवैधानिक होती है और न्यायालय उन्हें खण्डित कर सकता है। विधान मण्डल को अपनी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।

आर0एस0जोशी बनाम अजीत मिल्स लि0 (A.I.R. 1977S.C.) के मामले में न्यायाधिपति श्रीकृष्ण अय्यर ने छद्-विधायन की परिभाषा इस प्रकार की है छता से तात्पर्य ‘अक्षमता’ है। कोई वस्तु छद्म तब होती है जब वह जिस रूप में प्रकट की जाती है वास्तव में उस रूप में नहीं होती। भारतीय शब्दावली में इसे ‘माया’ कहते हैं। छता में दुर्भावना का तत्व नहीं होता है।

दुर्व्यपदेशन का अर्थ स्पष्ट करते हुए संविदा पर इसके प्रभाव का वर्णन कीजिए।Explain the meaning of misrepresentation and discuss its effect on contract.

नागेश्वर बनाम ए0पी0एस0टी0) कार्पोरेशन (A.I.R. 1958 S.C.) के बाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस सिद्धान्त का आधार यह है कि जो कार्य विधानमण्डल प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकता, वह कार्य वह अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं कर सकता है, अर्थात् यदि किसी विषय पर उसे विधि बनाने की शक्ति नहीं है तो वह अप्रत्यक्ष तरीके से उस पर विधि नहीं बना सकता है। ऐसे मामलों में न्यायालय विधान की वास्तविक प्रवृति एवं स्वरूप की जाँच करेंगे न कि उसके प्रयोजन की जो उसमें प्रत्यक्षतः दृश्यमान है। किन्तु यदि विधानमण्डल को किसी विषय पर विधि बनाने की शक्ति प्राप्त है तो इसका कोई महत्व नहीं है कि वह किसी प्रयोजन से बनाया गया है।

कामेश्वर सिंह बनाम बिहार राज्य (1952S.C.) इस विषय पर उच्चतम न्यायालय का एकमात्र विनिश्चय है जिसमें छद्म-विधायन के सिद्धान्त पर किसी अधिनियम को अवैध घोषित किया गया है। इसमें बिहार भूमि सुधार अधिनियम, 1950 की विधिमान्यता को चुनौती दी गयी। थी। इस अधिनियम के द्वारा जमींदारों की भूमि अधिगृहीत कर ली गयी थी और उन्हें प्रतिकर देने की व्यवस्था थी। जमींदारों को मालगुजारी के रूप में मिलने वाली आय के आधार पर प्रतिकर दिया जाना था। इसके अनुसार भूमि अधिग्रहण के पूर्व की बकाया धनराशि राज्य में निहित हो जानी थी और उसमें से आधी जमींदारों को प्रतिकर के रूप में दिये जाने की व्यवस्था थी। न्यायालय ने अधिनियम को अविधिमान्य घोषित कर दिया क्योंकि उसमें प्रतिकर को निर्धारित करने के लिए वस्तुतः कोई आधार नहीं विहीत किया गया था। यद्यपि ऊपरी तौर से ऐसा करने का प्रयास किया गया था किन्तु अधिनियम में दी हुई व्यवस्था के परिणामस्वरूप जमींदारों को कोई प्रतिकर नहीं मिलता था।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top